1857 में हुई आजादी की पहली लड़ाई में अपनी बेहतरीन संगठन शक्ति और बहादुरी से अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया। अवध के शासक वाजिद अली शाह की पहली बेगम हजरत महल 1857 की क्रांति में कूदने वाली पहली महिलजब अग्रेजों ने अवध के आखिरी ताजदार वाजिद अली शाह को कलकत्ता जिलावतन कर दिया उस वक्त उनकी छोटी बीवी बेगम हजरत महल ने अवध की कमान संभाली उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का वली मुक़र्रर कर दिया और अग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी या यूँ कहें की जंग का एलान कर दिया। उन्होंने अपने नाबालिग बेटे को तख़्त पर बैठा कर खुद अंग्रेजों की फौज का सामना किया। बेग़म हज़रत महल और रानी लक्ष्मी बाई की फौज में औरतों ने भी बढ़ चढ़ हिस्सा लिया था।

नाना साहेब और मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी ने भी 1857 की जंग-ए-आजादी में बेगम हजरत महल का साथ दिया था। आलमबाग की जंग के दौरान उन्होंने हाथी पर सवार होकर अपने जाबांज सिपाहियों की खूब हौसला अफजाई की लेकिन जंग में शिकस्त होती देख उन्हें मजबूरन पीछे हटना पड़ा। जिसके बाद वह अवध के देहातों में गईं और वहाँ भी इंक़लाब की चिंगारी सुलगाई। आखिर में जब पुरे अवध पर अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया तब उन्हें अवध छोड़ना पड़ा। उन्हें काठमांडू में शरण मिली बाद की जिंदगी उन्होंने वहीं गुजारी। जिस तरह दीगर शाही घराने आज अपने महलों में शान-ओ-शौकत से रह रहे हैं अगर उस वक्त उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी तस्लीम कर ली होती तो आज उनका भी घराना सलामत होता और वैसे ही शान-ओ-शौकत से रहता।

उनकी वफ़ात के बाद उन्हें काठमांडू में ही दफ़न किया गया था। हालांकि उनकी वफ़ात के बाद मलिका विक्टोरिया की यौम-ए-पैदाइश (1887) के मौके पर ब्रिटिश हुकूमत ने उनके बेटे बिरजिस क़द्र को माफ़ कर दिया था और उन्हें वतन वापस लौटने की इजाज़त दे दी थी।

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