चुनावी रैली में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला बोला.

सोनिया गांधी के बयानों की जितनी चर्चा हुई, उतनी ही बात उनके चुनाव प्रचार में उतरने को लेकर हो रही है. दरअसल, सोनिया गांधी कई साल बाद कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करने मैदान में उतरीं.

सोनिया गांधी हाल तक कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष थीं लेकिन वो बीते करीब एक दशक से अपनी जिम्मेदारी पार्टी के दूसरे नेताओं को सौंपती जा रही थीं. इनमें सबसे अहम नाम है, राहुल गांधी.

‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद से पार्टी नेता ही नहीं बल्कि राजनीतिक विश्लेषक भी राहुल गांधी को कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बता रहे हैं. कई विश्लेषक दावा करते हैं कि राहुल गांधी को इस जगह तक स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका सोनिया गांधी की रही है.

इसके कई उदाहरण भी सामने हैं.

20 जनवरी 2013: राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने और उन्होंने जयपुर में हो रही कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कहा, ”कल रात मां मेरे कमरे में आईं और रोने लगीं. उन्होंने कहा कि सत्ता एक ज़हर है. जिस सत्ता को कई लोग चाहते हैं वो असल में एक ज़हर है.”

लेकिन, बिड़ला ऑडिटोरियम के बाहर कांग्रेस कार्यकर्ता नारे लगा रहा थे, ”देश का नेता कैसा हो, राहुल गांधी जैसा हो.”

राहुल गांधी के साल 2007 में कांग्रेस महासचिव बनने के बाद उनके कांग्रेस की अगुवाई करने की चर्चाएं होने लगी थीं. कार्यकर्ता सोनिया गांधी की जगह राहुल की तरफ़ देखने लगे थे.

दिसंबर 2017: राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने के बाद पार्टी ने लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा. अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से सोनिया गांधी की राजनीतिक सक्रियता कम होने लगी.

लेकिन, कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए को चुनाव में सिर्फ़ 52 सीटें मिलीं. पार्टी के ख़राब प्रदर्शन ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर दिए और उन्होंने हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए जुलाई 2019 में अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया.

तब सोनिया गांधी फिर से सामने आईं और उन्होंने कांग्रेस के अंतरिम अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभाली.

साल 2020-21 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर हुए विवाद के बीच भी सोनिया ने गांधी ने जवाब दिया कि पार्टी की अध्यक्ष वो ही हैं और उनसे बात करने के लिए मीडिया के सहारे की ज़रूरत नहीं.

सोनिया गांधी ने तब फिर से पार्टी पर अपनी मजबूत पकड़ दिखाई.

फरवरी 2023: राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद छत्तीसगढ़ में हुए कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में सोनिया गांधी ने कहा, ”भारत जोड़ो यात्रा के साथ मेरी पारी की समाप्ति हो सकती है. ये पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है.”

इस बयान के बाद उनके राजनीति से संन्यास लेने की चर्चाएं जोर-शोर से होने लगीं.

लेकिन, अब कर्नाटक चुनाव में शनिवार को सोनिया गांधी फिर से मंच पर नज़र आईं. उन्होंने बीजेपी को चुनौती दी, कर्नाटक की जनता का आशीर्वाद मांगा और राज्य से पुराना संबंध भी याद दिलाया.

उन्होंने हुबली में कहा, ”क्या आपको नहीं लगता है कि आज जो सत्ता में बैठे हैं, डकैती करना ही उनका धंधा हो गया है. 2018 में आपने इन्हें सत्ता तो नहीं सौंपी लेकिन इन्होंने डकैती डालकर सत्ता हथिया ली. आप ही बताइए कि आप किस पर भरोसा करेंगे, चंद लोगों को फायदा पहुंचाने वालों पर या सभी के उत्थान के लिए संघर्ष करने वालों पर?”

सोनिया गांधी ने करीब साढ़े तीन साल बाद किसी रैली को संबोधित किया है. कर्नाटक के पहले हुए तमाम चुनावों में स्टार प्रचारक होने के बावजूद भी उन्होंने प्रचार में हिस्सा नहीं लिया.

सोनिया गांधी 1998 में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं. उनके अध्यक्ष रहते केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने लेकिन पार्टी की धुरी सोनिया गांधी ही बनी रहीं.

लेकिन, अब पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं. पार्टी के केंद्र में राहुल गांधी हैं. ये दोनों नेता कर्नाटक के चुनाव प्रचार में खासे सक्रिय भी हैं. कर्नाटक के चुनाव मैदान में प्रियंका गांधी भी दमखम झोंकती दिखी हैं.

ऐसे में पार्टी की ‘सेंटर स्टेज’ से हटने का संकेत देने वाली सोनिया गांधी को प्रचार के आखिरी दिनों में मैदान में क्यों उतरना पड़ा, ये सवाल राजनीतिक गलियारों में पूछा जा रहा है.

इसे लेकर लेखक और वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ”इसमें कांग्रेस की थोड़ी दुविधा नज़र आती है. आप या तो सक्रिय हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं. 2016 में जब सोनिया गांधी 70 साल की थीं तब भी उन्होंने ये इच्छा ज़ाहिर की थी. लेकिन, राहुल गांधी के भविष्य को लेकर असमंजस की स्थिति बनी रही तो वो अलग नहीं हो पाईं.”

“लेकिन, वो अब भी पूरी तरह निष्क्रिय नहीं हैं. लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस का नेता चुनने का अधिकार संसदीय दल के नेता का होता है और उस भूमिका में सोनिया गांधी अब भी हैं. उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे को राज्यसभा में नेता नियुक्त किया था.”

राशिद किदवई का कहना है कि सोनिया गांधी अपनी इच्छा सामने रखती हैं. वो चाहती हैं कि 70 के बाद सक्रिय राजनीति से किनारा करके अच्छा उदाहरण दें. लेकिन, व्यवहारिक राजनीति की अड़चने हैं.

वहीं, वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी मानती हैं कि सोनिया गांधी की स्वीकार्यता के कारण ही आज भी उनकी ज़रूरत महसूस होती है.

वह कहती हैं, “आज कांग्रेस के अंदर कोई सबसे स्वीकार्य नेता है तो वो सोनिया गांधी है. उसका कारण ये है कि उन्होंने जब 2004 में प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया और मनमोहन सिंह को पीएम बना दिया तब से उनकी स्वीकार्यता देश में बढ़ गई. हमारा देश ऐसा है कि जब कोई त्याग करता है तो उसका सम्मान किया जाता है.”

नीरजा चौधरी के मुताबिक राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और मौजूदा सदस्यता रद्द होने वाले प्रकरण के बाद खुद को स्थापित तो किया है लेकिन कांग्रेस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को ठीक से भुना नहीं पाई.

फिर सोनिया गांधी का कर्नाटक से पुराना रिश्ता भी रहा है. इंदिरा गांधी चिकमंगलूर से और सोनिया गांधी बेल्लारी से चुनाव जीती थीं. नीरजा चौधरी के मुताबिक कांग्रेस कर्नाटक से इस पुराने रिश्ते की भी याद दिलाना चाहती थी.

कर्नाटक में दांव पर साख

अक्सर देखा जाता है कि सोनिया गांधी चाहे पार्टी अध्यक्ष रही हों या नहीं, अहम मौके पर वो कांग्रेस की कमान संभालने सामने आती रही हैं. कर्नाटक चुनाव भी कांग्रेस के लिए ‘करो या मरो’ की स्थिति माने जा रहे हैं.

यहां सत्ताधारी बीजेपी और कांग्रेस में सीधा मुक़ाबला है. बीजेपी की तरफ़ से पीएम नरेंद्र मोदी खुद बढ़-चढ़कर चुनाव प्रचार में हिस्सा ले रहे हैं. ऐसे में उनके जैसे लोकप्रिय नेता की बराबरी करना भी कांग्रेस के लिए चुनौती है.

राशिद किदवई कहते हैं, “कांग्रेस के लिए कर्नाटक चुनाव का महत्व इसलिए भी है क्योंकि ये कांग्रेस का सम्मान बढ़ाएगा और इसके आधार पर पार्टी 2024 लोकसभा की तैयारी कर पाएगी. वो अन्य विपक्षी दलों के साथ मोलभाव कर पाएगी. इसलिए सोनिया गांधी ज़ोर लगा रही हैं क्योंकि यहां गांधी परिवार की अपनी साख का मसला भी है.”

जानकार ये भी मानते हैं कि कांग्रेस के जीतने की संभावना के चलते कर्नाटक में गांधी परिवार को सामने लाया जा रहा है ताकि स्थानीय नेतृत्व के साथ-साथ केंद्रीय नेतृत्व भी नज़र आए.

राहुल गांधी का अध्यक्ष पद छोड़ना हो या कांग्रेस में ‘जी 23’ के नेताओं का विरोध हो सोनिया गांधी हमेशा कांग्रेस के लिए ‘संकटमोचक’ बनकर आई है.

नीरजा चौधरी कहती हैं, “वो मुश्किल समय में कांग्रेस को संभालती रही हैं लेकिन अभी संकट की स्थिति नहीं है.”

“ये कहा जा सकता है कि अभी कांग्रेस में सत्ता का हस्तांतरण हो रहा है लेकिन सोनिया का जो कद है वो कद दूसरे नेताओं को बनाने में वक़्त लगेगा.”

राहुल गांधी पर सोनिया गांधी की मौजूदगी का असर
बीजेपी का आरोप रहा है कि राहुल गांधी को अब भी ‘राजनीतिक तौर पर स्थापित होने के लिए’ सोनिया गांधी की ज़रूरत पड़ती है.

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा, “राहुल गांधी कर्नाटक के लोगों को गारंटी दे रहे हैं. लेकिन राहुल गांधी की गारंटी कौन लेगा. वो यूपी से सांसद थे और एक चुनाव हार गए तो केरल चले गए. उनकी गारंटी कौन लेगा. सोनिया गांधी पिछले 20 साल से राहुल गांधी को खड़ा करने के लिए अकेले लड़ रही हैं. अब ऐसा व्यक्ति कर्नाटक के लोगों को गारंटी कैसे दे सकता है?”

राशिद किदवई का मानना है कि सोनिया गांधी की मौजूदगी का राहुल को ‘फायदा और नुक़सान’ दोनों हुआ है.

वो कहते हैं, “मां के रूप में सोनिया गांधी सौ प्रतिशत राहुल गांधी के हक में हैं लेकिन क्या वो राजनेता के तौर पर उनकी मदद कर सकी हैं. राहुल गांधी को सोनिया की कांग्रेस से (यानी पुराने नेताओं से) हमेशा टकराव का रास्ता अपनाना पड़ा है. राहुल गांधी अपनी मर्ज़ी से कांग्रेस को नहीं चला पाए. उनके राजनीतिक सफ़र में काफ़ी अड़चने आईं.”

सोनिया गांधी से राहुल गांधी तक कांग्रेस के पहुंचते-पहुंचते कई नेताओं ने पार्टी का साथ तक छोड़ दिया जिनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, गुलाम नबी आज़ाद, कैप्टन अमरिंदर सिंह, सुनील जाखड़, हार्दिक पटेल, आरपीएन सिंह और अश्विनी कुमार जैसे बड़े नेताओं का नाम शामिल है.

लोगों पर सोनिया गांधी के प्रभाव को लेकर राशिद किदवई कहते हैं, “सोनिया गांधी को लोग एक कामयाब नेता के तौर पर देखते हैं. लेकिन, 2014 के बाद सोनिया गांधी को देखकर लगा कि वो विवशता के साथ चल रही है. उनकी लोकप्रियता में काफ़ी कमी आई है. हालांकि, राहुल के मुक़ाबले लोग उनको राजनीतिक रूप से काफ़ी सुलझा हुआ मानते हैं.”

वो कहते हैं कि चाहे प्रियंका गांधी का राजनीति में आना हो या सोनिया गांधी का समय-समय पर नज़र आना, बात ये है कि कांग्रेस इस समय बुरे दौर से गुज़र रही है और ऐसे में पूरा गांधी परिवार एकजुट हुआ है.

साभार BBC न्यूज़…

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