क्या इस सदी में मिलेगा, गांधी जी की जान बचाने वाले बख्त मियां उर्फ बतख मियां अंसारी के परिवार को इंसाफ़ ? एम. डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस) सेवानिवृत्त, डी. जी.

कहा जाता है कि बचाने वाला मारने वाले से हमेशा बड़ा होता है और जो अपनी जान व माल की कुर्बानी देकर किसी की जान बचाता है, वो हमेशा के लिए अमर हो जाता है। और ज़ाहिर है जो बड़ा होता है, उसे हर ऐसे मौके पर याद किया जाता है।

क्या इस सदी में मिलेगा, गांधी जी की जान बचाने वाले बख्त मियां उर्फ बतख मियां अंसारी के परिवार को इंसाफ़ ? एम. डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस) सेवानिवृत्त, डी. जी.

कहा जाता है कि बचाने वाला मारने वाले से हमेशा बड़ा होता है और जो अपनी जान व माल की कुर्बानी देकर किसी की जान बचाता है, वो हमेशा के लिए अमर हो जाता है। और ज़ाहिर है जो बड़ा होता है, उसे हर ऐसे मौके पर याद किया जाता है। लेकिन हमारे देश भारत में मामला कुछ अलग ही नहीं बल्कि बिल्कुल उलट है।

बापू महात्मा गांधी को आज पूरी दुनिया जानती है, और उनका क़ातिल भी उतना ही मशहूर है जितना कि खुद गांधी जी। उनके क़ातिल का नाम भी पूरी दुनिया को मालूम है। लेकिन एक ऐसी शख्सियत, जिन्होंने अपनी जान की परवाह बिना, बिना किसी डर और झिझक के गांधी जी की जान बचाई, आज कोई उनका नाम तक नहीं जानता । आज वो शख्सियत गुमनाम हो चुकी है। वो महान इंसान हैं बख्त मियां अंसारी उर्फ बतख मियां अंसारी ।

इतिहास की किताबों में लिखा गया है कि किस तरह बख्त मियां अंसारी ने गांधी जी की जान बचाई। एक अंग्रेज़ अफ़सर ने गांधी जी को खाने पर बुलाया और अपने बावर्ची बख्त मियां को ज़हर मिला दूध देने को कहा। लेकिन बख्त मियां ने इस साज़िश को बेनकाब कर दिया और गांधी जी की जान बच गई।

अगर उस दिन बख्त मियां डर या मजबूरी के तहत ज़हर दे देते, तो हमारे देश की आज़ादी कितनी मुश्किल हो जाती, इसका अंदाज़ा आप और हम अच्छे से लगा सकते हैं। इस साहसिक कदम की सज़ा उन्हें अंग्रेज़ों से वहशी तरीक़े से पिटाई के रूप में मिली। उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल किया गया, जेल में डाल दिया गया और जेल में उनके साथ वह सब कुछ किया गया जो उस ज़माने में हर आज़ादी के मतवाले के साथ होता था।

बख्त मियां के पोते चिराग़ अंसारी और कलाम अंसारी समेत परिवार के अन्य सदस्य कहते हैं कि हमारे दादा ने गांधी जी को तो बचा लिया, लेकिन इसकी क़ीमत उन्हें ज़िंदगी भर चुकानी पड़ी। उन्होंने कहा कि सरकार ने अपने ही राष्ट्रपति का वादा भुला दिया । बख्त मियां अंसारी का परिवार आज दर-दर की ठोकरें खा रहा है, हर तरह की सुविधाओं से

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वंचित है। कई सरकारें आईं और गईं, सबने वादा किया कि इंसाफ़ मिलेगा, लेकिन आज तक न तो बख्त मियां अंसारी को और न ही उनके परिवार को इंसाफ़ मिला। डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर आज तक कितने राष्ट्रपति आ चुके हैं। इसी तरह केंद्र और राज्य में न जाने कित सरकारें बदलीं • कांग्रेस से लेकर लालू यादव की सरकार, नीतीश जी की सरकार सबने वादे किए, लेकिन निभाया किसी ने नहीं। बिहार विधान सभा में इस मुद्दे पर कई बार सवाल उठे जवाब मांगे गए, लेकिन नतीजा शून्य रहा।

यह बात भी उल्लेखनीय है कि बख्त मियां अंसारी की इस बहादुरी से खुश होकर भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उनके परिवार को 35 बीघा ज़मीन देने का वादा किया था। लेकिन आज तक यह ज़मीन उन्हें नहीं मिली शायद इसलिए कि वो एक ग़रीब किसान थे। अगर यही कारनामा किसी ऊँची जाति, किसी सत्ता से जुडे रुतबेदार या अमीर आदमी ने किया होता, तो वो ज़मीन कब की दे दी जाती ।

आज चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्य की, सबने उपेक्षा की सारी हदें पार कर दी हैं। यह क्यों हो रहा है, सोचने की ज़रूरत है। यहाँ तक कि उनके नाम पर बनी लाइब्रेरी, उनका मक़बरा, उनके नाम का गेट- • सब उपेक्षा का शिकार है।

आज बीजेपी की केंद्र सरकार है जो पसमांदा समाज के कल्याण की बात कर रही है। राज्य में नीतीश जी और तेजस्वी जी राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं। इससे पहले भी स्थानीय विधायक ने विधान सभा में यह मुद्दा उठाया था। फिर भी आज तक इंसाफ़ नहीं मिला? सवाल यह है कि इंसाफ़ की रौशनी कब फूटेगी? क्या भारत में पसमांदा तबके को कभी इंसाफ मिलेगा या बस जुमलेबाज़ी चलती रहेगी?

यह सिर्फ़ अफ़सोस की बात नहीं बल्कि एक गहरी ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी है. कि बख्त मियां अंसारी जैसे सच्चे देशभक्त, जिन्होंने गांधी जी की जान बचाई, उन्हें आज तक उनका कानूनी और नैतिक हक़ नहीं दिया गया। 1950 में देश के राष्ट्रपति ने 35 बीघा ज़मीन देने का वादा किया, लेकिन वह वादा आज तक फाइलों भाषणों और घोषणाओं की क़ब्र में दफ़न है। इस दौरान देश में दर्जनों सरकारें बदल गईं – मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, मंत्री गृह - सब बदलते रहे, लेकिन बतख मियां के लिए इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं पैदा हुआ।

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यहाँ तक कि 1950 के राष्ट्रपति आदेश, जो एक संविधानिक भेदभाव करता है, उसके ख़िलाफ़ भी कोई संगठित लड़ाई नहीं लड़ी गई। सबसे ज़्यादा शर्मनाक बात यह है कि पसमांदा तबके की सबसे बड़ी बात करने वाले पसमांदा नेता ही

इस पर ख़ामोश हैं। जिन्होंने हमेशा अपनी राजनीति को पसमांदगी' के नाम पर चमकाया, लेकिन जब एक सच्चे पसमांदा मुजाहिद के हक़ की बात आई तो सबके होंठ सिल गए। यह कैसी नुमाइंदगी है जो सिर्फ़ चुनावों के वक्त वोट आती है, लेकिन उसके बाद न उनके दर्द की परवाह है, न उनके मसलों की?
आज बिहार समेत पूरे देश में दर्जनों पसमांदा संगठन मौजूद हैं – हर साल जलसे, बैनर, पोस्टर, और सेमिनार होते हैं – मगर सवाल ये है कि बख्त मियां अंसारी जिन्हें भुला दिया गया, उनके लिए इन संगठनों ने क्या ठोस कदम उठाया? क्या ये तमाम संगठन सिर्फ़ अपने नेताओं की तस्वीरें छपवाने के लिए बनाए गए हैं? क्या ये सिर्फ़ दिखावे, नारों और खोखले प्रस्तावों के नाम पर चलते हैं?

ख़ास तौर पर चंपारण, मोतिहारी और आस-पास के वो पसमांदा क़ायदीन जो खुद को क़ौम का रहनुमा कहते हैं- उनसे सीधा सवाल किया जाना चाहिए कि अगर वो अपने क्षेत्र के एक हीरो के हक़ में आवाज़ उठाने की भी हिम्मत नहीं रखते तो किस काम के रहनुमा हैं? ये ख़ामोशी सिर्फ़ बेरुख़ी नहीं बल्कि एक सामूहिक ग़द्दारी है, जिसका हिसाब आने वाली नस्लें ज़रूर लेंगी। इसलिए आज हमें सब कुछ निछावर करके बख्त मियां उर्फ़ बतख मियां अंसारी और उनके परिवार को इंसाफ दिलाने की लड़ाई लड़नी होगी। इसी तरह हमें 1950 के राष्ट्रपति आदेश को ख़त्म करने का भी संकल्प लेना होगा, जो हमारे पसमांदा तबके (रज़ील / अरजाल) के साथ बरसों से नाइंसाफ़ी की जड़ बना हुआ है।