नागरिक परिक्रमा
लोकसभा चुनाव में संविधान बदलने के लिए संघ-भाजपा के 400 पार के नारे को जनता द्वारा ठुकराने के बाद भी उसकी नीयत बदली नहीं है। अब फिर से उसने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को हटाने की बहस एक बार फिर तेज़ कर दी गई है।

(संजय पराते की राजनैतिक टिप्पणियां)
1. अब संविधान के ख़िलाफ़ संघी गिरोह का प्रलाप!
लोकसभा चुनाव में संविधान बदलने के लिए संघ-भाजपा के 400 पार के नारे को जनता द्वारा ठुकराने के बाद भी उसकी नीयत बदली नहीं है। अब फिर से उसने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को हटाने की बहस एक बार फिर तेज़ कर दी गई है। इस बहस को उसने यह कहकर शुरू किया है कि ये शब्द एक संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे, इसलिए गलत है। संघ-भाजपा बड़ी चालाकी से आम जनता की आपातकाल विरोधी भावना को संविधान विरोधी भावना में बदलने की कोशिश कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने बार बार यह स्पष्ट किया है कि किसी भी संविधान संशोधन की वैधता इस कसौटी पर परखी जायेगी कि वह संविधान की मूल भावना के खिलाफ तो नहीं है। यदि पूरे संविधान की भावना का मूल्यांकन किया जाएं, तो यह स्पष्ट है कि हमारा संविधान लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समाजवाद जैसे मूलभूत आधार स्तंभ पर टिका है और इसके सूत्र पूरे संविधान में बिखरे पड़े है। ये सूत्र ही हमारे देश में शासन की दिशा को प्रशस्त करते हैं। केशवानंद भारती के विख्यात प्रकरण में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के बिना हमारे देश में लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। चूंकि 42वां संविधान संशोधन संविधान की मूल भावना को और मजबूती से अभिव्यक्त करते हैं, इसलिए प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को जोड़ा जाना संविधान विरोधी नहीं है।
लेकिन संघी गिरोह इस संविधान को आजादी के दिन से ही मानने के लिए तैयार नहीं है। पहले उसने तिरंगा झंडा, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक है, पर आपत्ति उठाई, तीन रंगों को अशुभ बताते हुए भगवा ध्वज की तरफदारी की। फिर उसने आंबेडकर के नेतृत्व में बने संविधान की ही खिल्ली उड़ाई और मनुस्मृति लागू करने की मांग की। उन्होंने संविधान को पश्चिमी विचारधारा की खिचड़ी बताया था। बहरहाल, आजादी के बाद देश की संविधान सभा ने संघी गिरोह की इस मांग को ठुकरा दिया और देश के विकास के लिए साम्राज्यवाद विरोधी प्रतीकों, भावनाओं, विचारों, आधुनिक मूल्यों और वैज्ञानिक तर्कशीलता को अपनाया। संघी गिरोह को यह रास्ता कभी हजम नहीं हुआ।
केंद्र और कई राज्यों की सत्ता में आने के बाद संघी गिरोह द्वारा पिछले दस सालों से प्रतिगामी मूल्यों को जनता के जेहन में बैठाने की कोशिश हो रही है। उनकी हिम्मत अब इतनी बढ़ गई है कि संविधान के सर्वस्वीकृत मूल्यों के खिलाफ ही जहर उगला जा रहा है और इस घिनौने काम में संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी शामिल जो गए हैं, जिनकी हिंदुत्व की राजनीति के प्रति लगाव किसी से छुपा नहीं है। हालत यह हो गई है कि संघ के निजी विचारों को सरकार का विचार बनाने की कोशिश हो रही है। यह हास्यास्पद है कि जो सरकार संविधान और उसके मूल्यों के पालन से बंधी हुई है, वहीं सरकार इसका बार बार उल्लंघन कर रही है। वह संविधान में निहित आधुनिक मूल्यों को, बकौल उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, "सनातन की आत्मा के साथ किया गया एक अपवित्र अपमान" बता रही है।
यह हास्यास्पद है कि जो लोग संविधान और उसके मूल्यों के खिलाफ तनकर खड़े हैं, जो इस देश के कानूनों की खुले आम धज्जियां उड़ा रहे हैं, देश में अघोषित आपातकाल लागू किए हुए हैं, वे ही अपने आप को राष्ट्रभक्त और राष्ट्रवादी बता रहे हैं और अन्य लोगों को चरित्र प्रमाण पत्र बांट रहे है। संघ-भाजपा की इस चालबाजी का पूरे देश की जनता को मिलकर मुकाबला करना होगा। इस बात को हमें ध्यान रखना होगा कि इन कथित राष्ट्रभक्तों के तीर्थ स्थल आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर आज़ादी के बाद 52 वर्षों तक तिरंगा नहीं फहराया गया था। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता -- ये दो शब्द ही इन संघियों के हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है और इसलिए इन शब्दों से उनकी नफरत जगजाहिर हैं।
2. चुनाव चोर, गद्दी छोड़!
चुनाव आयोग को हथियार बनाकर बिहार में चुनाव लूटने का खेल शुरू हो चुका है। गोदी मीडिया के प्रभाव से बाहर की मीडिया जो तथ्यपरक सबूतों के साथ जो रिपोर्टिंग कर रही है, उससे इसी बात को बल मिलता है कि बिहार में चुनाव नहीं, चुनाव का फर्जीकरण हो रहा है। मतदाताओं को पंजीकृत करने के लिए कितना गहन पुनरीक्षण जारी है, इसका पता इस तथ्य से ही चल जाता है कि बिहार के ठेलों-खोमचों में इन फॉर्मों में समोसे-जलेबी लपेटकर बेची जा रहे हैं और भाजपा के कार्यकर्ता बीएलओ के साथ बैठकर मतदाताओं के नकली दस्तखत करके उन्हें वोटर लिस्ट में जोड़ रहे हैं। असली वोटरों को पावती तक नहीं दी जा रही है, ताकि वे अपने को मतदाता सूची में बाहर होने पर उसे कहीं चुनौती ही न दे सकें। इन सभी रिपोर्टों से यही गूंज सुनाई दे रही है कि असली वोटर बाहर, फर्जी वोटर अंदर। महाराष्ट्र की तरह यही फर्जी वोटर अब बिहार में एनडीए की जीत का आधार बनेंगे और असली वोटरों का मतदाता सूचियों से बाहर होना महागठबंधन की भारी हार को सुनिश्चित करेगा।
पिछले चुनाव के आंकड़े भी इसी की पुष्टि करते हैं। बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता है। बिना चुनाव आयोग के किसी बयान के, लेकिन उसकी मैं सहमति के साथ ये खबरें आ रही हैं कि 40 लाख से ज्यादा मतदाताओं के नाम काट दिए गए हैं। इसका अर्थ है कि लगभग 5% मतदाता वोटिंग से बाहर हो गए हैं। इनका एकमात्र कसूर यही है कि वे गरीब हैं, कमाने खाने के लिए बाहर जाना उनकी मजबूरी है और हाशिए के ऐसे कमजोर लोग हैं, जिनकी कोई आवाज नहीं है। इन लाखों वास्तविक भारतीय मतदाताओं को वोटर लिस्ट से निकाल बाहर करने की बात कुछ सैकड़ा बांग्लादेशी नागरिक मिलने के शोर में दबाया जा रहा है, जबकि अभी तक यह तथ्य पूरी तरह स्थापित भी नहीं हुआ है।
40 लाख मतदाताओं के नाम कटने का अर्थ है, राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से हर विधानसभा क्षेत्र से औसतन 16000 से ज्यादा वास्तविक वोटरों के नाम कटना। इसका अर्थ है, बिहार के हर बूथ से 50 से ज्यादा वोटों का कटना, क्योंकि बिहार में हर विधानसभा में औसतन 320 बूथ है।
अब विगत दो विधानसभा चुनावों के क्लोज मार्जिन से हार-जीत वाली सीटों का आंकड़ा देखें तो 2015 के विधानसभा चुनाव में 3000 से कम मतों से हार-जीत वाली कुल 15 सीटें थी एवं 2020 के चुनाव में 3000 से कम वोटों से हार-जीत वाली कुल 35 सीटें थी। इसी प्रकार, अगर 5000 से कम अंतर से हार-जीत वाली सीटों को गिने, तो 2015 में 32 सीटें और 2020 में ऐसी कुल 52 सीटें थी। इस प्रकार, इस बार के विधानसभा चुनाव में 47 से 87 सीटें (और ठोस आंकलन करें, तो 67 सीटें) बहुत कम मार्जिन से हार-जीत की संभावना वाली सीटें बनती हैं। 40 लाख मतदाताओं को मतदाता सूची से बाहर करने का अर्थ है, कम मार्जिन वाली 67 सीटों पर एनडीए की जीत सुनिश्चित करना। इसके साथ ही, जिन फर्जी मतदाताओं को भाजपा नेताओं के दिशा-निर्देशन में वोटर लिस्ट में भरा जा रहा है, वह महागठबंधन को भारी हार की ओर धकेलेगी।
यह याद रखना चाहिए कि वर्ष 2020 के चुनाव में महागठबंधन और एनडीए के बीच वोटों का अंतर एक लाख भी नहीं था। ऐसी हालत में 40 लाख मतदाताओं से मताधिकार छीनने का अर्थ स्पष्ट रूप से चुनाव नतीजों की चुनाव से पूर्व ही चोरी करना है। इसे ही चुनाव का फर्जीकरण कहते हैं। इसीलिए महागठबंधन ने बहुत सही नारा दिया है : चुनाव चोर, गद्दी छोड़। आज केंद्र में एक ऐसी फासीवादी-तानाशाह सरकार बैठी है, जो चुनाव जीतने के लिए वोट देने वाली जनता को ही बदल देना चाहती है। ऐसा तो इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में भी नहीं हुआ था। भाजपा विरोधी सभी राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को और लोकतंत्र समर्थक मतदाताओं को इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत हो जाना चाहिए।