राजनैतिक व्यंग्य-समागम

इन विरोधियों ने क्या अति ही नहीं कर रखी है। बताइए, मोदी जी पर एक पैसे की धांधली का इल्जाम गोदी मीडिया के दरबार में साबित नहीं कर पाए, तो खामखां बेचारे के चुनाव आयोग के ही पीछे पड़ गए।

राजनैतिक व्यंग्य-समागम

1. सरकार को नयी जनता तो चुनने दो यारो! : राजेंद्र शर्मा 

इन विरोधियों ने क्या अति ही नहीं कर रखी है। बताइए, मोदी जी पर एक पैसे की धांधली का इल्जाम गोदी मीडिया के दरबार में साबित नहीं कर पाए, तो खामखां बेचारे के चुनाव आयोग के ही पीछे पड़ गए। गला फाड़-फाड़ कर सोशल मीडिया पर शोर मचा रहे हैं कि बिहार में मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के नाम पर धांधली हो रही है। और पता है कि इन्हें धांधली किस-किस चीज में दिखाई दे रही है? कहते हैं कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है। मोदी जी के विरोध के अंधे विपक्षियों को अच्छी से अच्छी चीज में धांधली ही दिखाई देती है। 

इनसे पूछिए क्या धांधली हो गयी? कहेंगे कि चुनाव आयोग ने तो कहा था कि बीएलओ के अवतार में स्कूृल मास्टर, आंगनवाड़ी बहनजी, वगैरह घर-घर जाएंगे, मतदाता सूची गणना प्रपत्र भरवाएंगे, दस्तखत करवाएंगे या अंगूठा लगवाएंगे, जरूरी प्रमाणपत्र जमा करेंगे और चुनाव आयोग की वेबसाइट पर फार्म अपलोड करेंगे। पर यहां तो कितने ही लोगों के घर पर न बीएलओ के पांव पड़े, न बीएलओ ने कोई फार्म दिया, न फार्म भरवाया, न दस्तखत कराया/अंगूठा लगवाया, न फार्म वापस लिया, न जरूरी सर्टिफिकेट जमा किए। वोटर और बीएलओ की देखा-देखी तक नहीं हुई, यहां तक कि वोटर और गणना फार्म की भी देखा-देखी नहीं हुई, पर...। अरे, पर क्या? चुनाव आयोग की वेबसाइट पर वोटर का गणना फार्म अपलोड भी हो गया। इक्का-दुक्का वोटर का नहीं, पूरे के पूरे परिवारों का फार्म अपलोड हो गया। इक्का-दुक्का परिवारों का भी नहीं, पूरे के पूरे मोहल्ले-टोलों का फार्म खुद-ब-खुद अपलोड हो गया। यह धांधली नहीं, तो और क्या है?

अब कोई इन अंध-मोदी विरोध के मारों से पूछे कि इसमें धांधली क्या है? किस जमाने में रहते हैं ये लोग? लगता है, इन्होंने ऑटोमैटिक का नाम ही नहीं सुना है। भइया ये इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई की पूंछ है। पूंछ बोले तो एकदम पूंछ का भी आखिरी सिरा। यहां ड्राइवर रहित गाड़ियां सड़कों पर फर्राटा भरने के लिए सरकारी इजाजतों की रस्सियां तुड़ाने पर आमादा हैं। ट्राइल भी हो चुके हैं। इजाजत मिलना आज-कल की ही बात है यानी आज कहीं और कल कहीं। और ये लोग एक मामूली से फार्म के खुद ब खुद भरकर, खुद ब खुद वेबसाइट पर अपलोड हो जाने को, सिर्फ इसलिए धांधली का मामला बनाने पर तुले हुए हैं कि सेकुलरिज्म के चक्कर में आसमानी करिश्मा तो मान नहीं सकते हैं।

अब इन्हें कौन समझाए कि यह चुनाव आयोग की ऑटोमैटिक व्यवस्था का कमाल है। एकदम सिंपल है। मशीन ने पुरानी मतदाता सूची में से नाम लिया और नयी मतदाता सूची का गणना फार्म बनाकर अपलोड कर दिया। सच पूछिए, तो चुनाव आयोग ने तो पहले ही इशारा कर दिया था कि नयी मतदाता गणना में ऑटोमैटिक मार्ग की भी मदद ली जाएगी। नहीं तो जब सारी राजनीतिक पार्टियां चिल्ला रही थीं कि इतने थोड़े से समय में मतदाता सूचियों का विशेष, गहन, पुनरीक्षण हो ही नहीं सकता है, यह असंभव है, तो चुनाव आयोग मंद-मंद यूं ही नहीं मुस्कुरा रहा होता। 

और तो और, सुप्रीम कोर्ट तक ने कहा कि टाइमिंग ठीक नहीं लगती है, तब भी चुनाव आयोग ने यही कहा कि सब ठीक हो जाएगा। आखिर, उसे पता जो था कि सब काम ऑटोमैटिकली फटाफट हो जाएगा।

अब प्लीज कोई यह मत कहना कि यह तो बीएलओ लोगों के खुद ही गणना फार्म भरकर, खुद ही फर्जी दस्तखत/अंगूठा लगाकर, फार्म जमा कर लेने का मामला है। माना कि कई वायरल वीडियो में ऐसा होता दिखाई भी दे रहा है, पर यह सच नहीं है। वायरल होने से ही कोई वीडियो सच नहीं हो जाता है। वीडियो झूठा भी हो सकता है। और झूठा होने को तो उन लोगों की वीडियो गवाही भी झूठी हो सकती है, जो कूद-कूदकर बता रहे हैं कि उन्होंने न बीएलओ के दर्शन किए, न गणना फार्म के। सीधे चुनाव आयोग की वेबसाइट पर इसके संदेश के दर्शन किए कि उनका गणना फार्म जमा हो गया है। और मान लीजिए, बीएलओ ने खुद ही फार्म भरकर खुद ही उस पर दस्तखत कर भी दिया, तो क्या हो गया? आखिर, बीएलओ निचले दर्जे के कर्मचारी होते हैं। कुछ एक्स्ट्रा रहमदिल भी हो ही सकते हैं। नहीं देखी जा रही होगी उनसे गरीब वोटरों की परेशानी। लिया और खुद ही फार्म भर दिया। न वोटर को परेशानी, न बीएलओ को घर-घर चक्कर मारने की हैरानी और डिपार्टमेंट से लेकर चुनाव आयोग तक की मूंछ भी ऊंची ; वह कर डाला, बल्कि टैम से पहले कर डाला, जो सब असंभव कहते थे! डबल इंजन है, तो कुछ भी मुमकिन है!

सच पूछिए, तो बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। बात और गहरी है। देश में अमृत काल चल रहा है। और अमृत काल में आत्मनिर्भरता चल रही है। माना कि चुनाव आयोग स्वायत्त है। माना कि स्वायत्त का मतलब, सरकार से स्वायत्त होना होता है। लेकिन, इसका मतलब यह तो नहीं है कि आत्मनिर्भरता के मोदी जी के दर्शन से चुनाव आयोग अछूता ही रह जाएगा। विपक्षी जिसे धांधली कहकर प्रचारित कर रहे हैं, वह असल में तो चुनाव आयोग की आत्मनिर्भरता है। चुनाव आयोग ही मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण कर रहा है, चुनाव आयोग ही लोगों के फार्म भर रहा है, चुनाव आयोग ही नयी मतदाता सूचियां तैयार कर रहा है; इससे ज्यादा आत्मनिर्भरता क्या होगी? मतदाता बीच में आया ही नहीं और मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण भी हो गया ; यह चुनाव आयोग की आत्मनिर्भरता नहीं, तो और क्या है?

इस सब चक्कर में मतदाता सूचियों से छांट-छांटकर गरीब और कमजोर मतदाताओं के नाम काटे जाने का शोर मचाने वाले, नाहक तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बना रहे हैं। आठ करोड़ के करीब कुल गिनती में से तीस-पैंतीस लाख के नाम कटने पर, कम से कम इतनी हाय-हाय करना नहीं बनता है। बड़े-बड़े राज्यों में, सूचियों में ऐसी छोटी-मोटी कटौतियां होती रहती हैं। वैसे भी क्या मोदी जी को इतने बड़े बिहार के मतदाताओं की सूची में से, इतने से नाम काटने के लिए भी किसी की इजाजत की जरूरत होगी? फिर एक सौ चालीस करोड़ भारतवासियों का आशीर्वाद जीतने का क्या फायदा? ब्रेख्त ने तो कहा था कि -- जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है, सरकार को चाहिए कि अपने लिए नई जनता चुन ले। कम्युनिस्ट था, उसका यह सुझाव था। मोदी जी क्या अपने लिए इत्ती-सी नई जनता भी नहीं चुन सकते हैं!

(व्यंग्य लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोक लहर' के संपादक हैं।)

2. इतनी कम तनख्वाह में प्रधान सेवक अपना खर्च कैसे चलाते हैं? : विष्णु नागर

प्रधान सेवक जी को देश की चिंता रहती है और मुझे उनकी! मेरी चिंता यह है कि बेचारे दो लाख तैंतीस हजार की मामूली-सी तनख्वाह में अपना अकेले का खर्च कैसे चलाते होंगे?

गूगल जी बताते हैं कि प्रधान सेवक जी को मासिक वेतन और भत्ते के रूप में कुल 2.33 लाख रुपए मिलते हैं। एक आदमी जो 18-18 घंटे बिना थके, एक भी दिन अवकाश लिये बगैर पिछले ग्यारह साल से 'देश की सेवा' करता ही आ रहा है, मान ही  नहीं रहा है, वह इतनी मामूली-सी तनख्वाह से भी संतुष्ट है, जबकि वह चाहे तो पांच करोड़ रुपए महीना भी ले, तो कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती। मगर वह नहीं लेता, क्योंकि वह झोले वाला है, फकीर है! उधर कारपोरेट की नौकरी करने वाले एमबीए पास लड़के-लड़कियों को देखो, पहले साल से ही बीस-तीस लाख रुपये तक वार्षिक वेतन उठाने लगते हैं! अब आप कहोगे कि जितनी सुविधाएं प्रधान सेवक जी को मिलती हैं, इन्हें भी दिला दीजिए, तो ये दो लाख क्या, एक लाख से भी कम वेतन लेंगे! ऐसे भी हैं, जो दस हजार रुपए मासिक वेतन पर भी तैयार हो जाएंगे और ऐसे भी हैं, जो एक पैसा नहीं लेंगे, उल्टे पांच लाख रुपए महीने देने को तैयार हो जाएंगे! और कुछ तो भैया, ऐसे भी हैं कि इन सुविधाओं और इस पद के बदले पचास करोड़ रुपए महीने देने को तैयार होंगे! अगर ठीक से सौदेबाजी की जाए, तो इस पद और इन सुविधाओं के बदले पांच सौ करोड़ रुपए मासिक देने को तैयार अरबपति भी मिल जाएंगे!

बहरहाल हम आज की बात करें। यह वेतन प्रधान सेवक जी की जरूरतों को देखते हुए वास्तव में बहुत कम है, ऊपर से इस पर इनकम टैक्स भी लगता है। ठीक है कि बंगला फ्री है, हवाई यात्रा फ्री है, दवा-दारू फ्री है, बिजली-पानी फ्री है, मगर खर्चे और भी तो होते हैं! बताया जाता है कि प्रधान सेवक जी इस तनख्वाह में से अपने खाने का खर्च भी उठाते हैं! जो शख्स देश के 81 करोड़ लोगों के लिए पांच-पांच किलो अनाज का हर महीने प्रबंध करता है, जो इतना बड़ा दानी- महादानी है, उसे अपने खाने के पैसे खुद खर्च करने पडे, प्रभु यह कैसी विडंबना है!

सुनते हैं, प्रधान सेवक जी बहुत अच्छे मेहमान नवाज हैं। अगर यह खर्च भी उन्हें खुद अपनी जेब से उठाना पड़ता है,  तब तो यह उनके साथ सरासर अन्याय है। चलो मान लो उनके साथ यह अन्याय नहीं होता होगा, देश यह अन्याय सह लेता होगा, मगर प्रधान सेवक जी को देश की सेहत की रक्षा के लिए अपनी सेहत का भी तो पल-पल पर खयाल‌ रखना पड़ता है। तगड़ी खुराक लेनी पड़ती है।सूखे मेवे, फल, जूस और न जाने क्या-क्या खाना-पीना पड़ता है! कहते हैं कि देश के हित में उन्हें तीस हजार रुपए किलो का मशरूम खाने का व्रत भी लेना पड़ा है।मान लो, वे हर रोज केवल सौ ग्राम भी खाते होंगे तो 90 हजार रुपए तो हर महीने मशरूम पर ही खर्च हो जाते होंगे। बीस-तीस हजार और कुछ खाने-पीने पर! एक लाख दस-बीस हजार तो खाने पर ही खर्च हो जाते हैं!

फेशियल आदि का खर्च फिलहाल छोड़ दें, तो उनके कपड़ों का खर्च बहुत भारी है। प्रधानमंत्री नहीं, प्रधान सेवक होने के नाते उन्हें दिन में पांच से छह बार कपड़े बदलने पड़ते हैं और सुनते हैं कि एक बार पहना हुआ कपड़ा दुबारा पहनना उनकी शान के खिलाफ है! चलिए सुविधा के लिए रोज छह ड्रेस के औसत को हम पांच और पांच के औसत को भी घटाकर चार कर देते हैं।

उनकी सादी से सादी ड्रेस भी पचास हजार रुपए से कम में क्या आती होगी! तो दिन की चार ड्रेस के हिसाब से केवल उनके कपड़ों का दैनिक खर्च दो लाख रुपए है यानी साठ लाख रुपए महीना है और महीने में अगर इकतीस दिन हुए तो खर्च दो लाख रुपए और बढ़ जाता होगा! चूंकि वह अपने को ईमानदार आदमी मनवाते हैं, तो इतना खर्च बेचारे कहां से करते होंगे? मान लिया कि वह आज प्रधानमंत्री हैं, तो उधार देनेवाले भी तैयार रहते होंगे मगर किसी दिन वह झोला उठाकर चल दिए, (जिसकी अफवाह आजकल उड़ रही है), तो उधार देने वाले सावधान हो जाएंगे। उनके गले पड़ जाएंगे कि साहेब जी झोला उठाकर तो हम आपको तब जाने देंगे, जब आप पहले हमारा हिसाब साफ करो। उसके बाद आप चाहे कहीं जाओ- हिमालय जाओ या केदारनाथ की गुफा में वास करो या जहन्नुम में जाओ मगर उधार लौटाए बगैर आप यहां से हिल भी नहीं सकते!

एक संभावना यह भी है कि उधार न लेते हों, उनका अपना कोई व्यवसाय हो, जिससे हर महीने लाखों की आमदनी होती हो! प्रधानमंत्री तो 'खुली किताब 'हैं, जिसमें यह पन्ना नहीं मिलता! लगता यही है कि उनका एक ही व्यवसाय है और वह है -- प्रधानमंत्रीगीरी। आमदनी तो इससे भी अरबों-खरबों की हो सकती है, मगर आदमी ईमानदार टाइप के दिखना चाहते हैं। वे अडानी को तो ठेके पर ठेके दे सकते हैं, मगर अपना भला नहीं कर सकते! बांड या म्यूचुअल फंड खरीदने के लिए भी कुछ तो बचत चाहिए, मगर वह होती नहीं!

तो फिर क्या उनकी पार्टी उनका यह शौक पूरा करती है?वह कर सकती है, क्योंकि पिछले 11 साल में वह इसे देश की सबसे बड़ी और सबसे अमीर पार्टी बना चुके हैं। मगर चूंकि संघ से आए हैं, चाल, चरित्र और चेहरे वाले है, तो पार्टी के पैसे को छूना भी पाप समझते होंगे! एक संभावना यह है कि उनका यह खर्च अडानी-अंबानी उठाते होंगे। वे उठा तो सकते हैं, मगर ये बेचारे तो खुद भी बार-बार कपड़े नहीं बदलते, तो ये क्यों देते होंगे हर महीने इतना पैसा!

फिर क्या, कैसे करते होंगे बेचारे? अभी तो फिर भी लोकतंत्र सा कुछ-कुछ है, तो इसका संतोषजनक उत्तर प्रधान सेवक जी दे सकते हैं, ताकि उनके 'उज्जवल चरित्र' पर कोई ऊंगली न उठाए। जिसकी छाती छप्पन इंच की है, उसके लिए यह कठिन नहीं होना चाहिए, मगर कोई उनकी छाती मापकर तो देखे!

एक और नन्हा सा प्रश्न है कि पिछले ग्यारह वर्षों से कुछ अधिक समय में इकट्ठा हो चुकी हजारों पोशाकों का आखिर क्या हुआ? ये प्रधानमंत्री निवास में कहीं जमा हैं या बेच दी गई हैं? थोड़ा सा प्रकाश इस पर भी पड़ जाए तो लोकतंत्र का दस ग्राम खून बढ़ जाएगा!